स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग : स्वामी विवेकानंद जी ऐसे महान व्यक्तित्व वाले पुरुष थे जिनकी प्रेरक प्रसंग और ज्ञानवर्धक बातों का पालन हर व्यक्ति करता है और अपने कार्यो में सफल होता है.
स्वामी जी के विचारों को आज के युवा पीढ़ियों को अवश्य धारण करना चाहिए वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेरणा के स्त्रोत थे.
आज इस लेख में हम स्वामी विवेकानंद जी के 3 प्रेरक प्रसंगों को पढ़ेंगे और इससे शिक्षा प्राप्त करेंगें.
स्वामी विवेकानन्द जी के 3 प्रेरक प्रसंग
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1. माँ का आशीर्वाद – स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग
स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका जाने वाले थे, वे अमेरिका यात्रा में जाने से पहले अपनी माँता जी के पास आशीर्वाद लेने पहुंचे,
माँ से बोले हे माँ आशीर्वाद दो, मै अमेरिका जा रहा हूँ। विवेकानंद जी की इस बात को सुन कर माँ जी चुप रहीं, जैसे उनको कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा।
विवेकानंद जी ने एक बार फिर माँ से कहा, माँ मुझे आशीर्वाद दो, माँ फ़ीर भी चुप रहीं।
फीर कुछ देर बाद माँ ने स्वामी विवेकानंद जी को, दूसरे कमरे में पड़ी एक चाकू को लाने के लिए कहा।
विवेकानंद जी जल्दी से गए और चाकू ले आकर माँ को दे दिए। चाकू को पाते ही, माँ ने स्वामी जी अनेकों आशीर्वाद दे डाले।
स्वामी विवेकानंद जी को चाकू और आशीर्वाद का सम्बन्ध समझ में नहीं आया, वे अचंभित हो गए की माँ ने चाकू पाते ही आशीर्वाद क्यों दिया।
वे माँ से चाकू और आशीर्वाद के सम्बंध में पूछ ही लिए।
माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, बेटा जब मैंने तुमसे चाकू माँगा, तब तुमने मुझे चाकू लाकर दिया, और चाकू देते समय उसके धार वाले हिस्से को अपनी ओर रखा और चाकू का हेंडल मुझे पकड़ाया।
इससे मै समझ गयी, की तुम सारी बुराइयों को अपने पास रखकर, लोगों में अच्छाइयां बांटोगे। स्वयं कष्ट सह कर लोगों में लोगों में खुशी बांटोगे, खुद विष पीकर लोगों को अमृत बांटोगे, इसलिए मै तुम्हे हृदय से आशीर्वाद दे रही हूँ बेटा।
माँ के इस बात को सुनकर विवेकानंद जी बड़े ही निश्छल हृदय से बोले, पर माँ मैने तो चाकू का धार इसलिए अपनी ओर रखा, ताकि आपको कोई चोट ना पहुंचे।
माँ और अधिक प्रसन्न हो गयीं, व प्रसन्नता से विवेकानंद जी को कहने लगी कि, तब तो और अच्छी बात है बेटे, तुम्हारे तो स्वभाव में ही भलाई है।
और माँ ने ख़ुशी-ख़ुशी विवेकानंद जी आशीर्वाद देते हुए अमेरिका भेजा।
प्रेरक प्रसंग का तात्पर्य यह है की अगर हृदय में भलाई व परोपकार है, तो वह छुपाए नहीं छुपती। व्यक्ति के गुण व अवगुण उसके स्वभाव में नजर आ ही जातें हैं।
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2. गुरु के प्रति भक्ति – स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग
भारत की महान आध्यात्मिक परम्परा में श्री रामकृष्ण परम हंस जी का नाम अमर है। और उन्ही की भाँती उनके शिष्य विवेकानंद जी का नाम भी अमर है।
इस प्रेरक प्रसंग के माध्यम से हम जानेगे की किस प्रकार एक गुरु की उपाधि पाने के बावजूद भी स्वामी विवेकानंद जी अंतिम क्षणों तक एक शिष्य ही बने रहे –
बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद जी, स्वामी विवेकानंद नहीं बल्कि नरेंद्र दत्त थे और अपने गुरु के लिए केवल नरेन थे।
नरेन अपने गुरुदेव से मिलने रोजाना उनके पास दक्षिणेश्वर आया करते थे, यह गुरु शिष्य की जोड़ी सबको बहुत भाती थी।
परन्तु एक बार गुरुदेव श्री रामकृष्ण जी को पता नहीं क्या सुझा, उन्होंने नरेन से बात करना तो दूर उनकी ओर देखना भी बंद कर दिया।
स्वामी विवेकानंद (नरेन) जी थोड़ी देर बैठे रहे फिर गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस जी को प्रणाम कर के चले गए।
जब अगले दिन आये तब फीर वही घटना घटी, फिर एसा 4, 5 दिनों तक चलता रहा। आखिर में श्री रामकृष्ण परम हंस जी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और स्वामी विवेकानंद जी से पूछा।
जब मै तुझसे बात ही नहीं करता रहा, तो तू क्या करने यहां आता रहा।
उत्तर में स्वामी विवेकानंद जी बोले।।।।। महाराज आपको जो करना है आप जानें, मै कोई आपसे बात करने ही थोड़ी आता हूँ.. मै तो बस आपको देखने के लिए आता हूँ।
प्रसंग का तात्पर्य यह है की स्वामी विवेकानंद जी गुरु को देख-देख कर कहाँ से कहाँ पहुंच गए, जीवन में जिसने गुरु को निहारने की कला सीख ली वह हमेसा आगे बढ़ता ही जाता है और अपार आनंद प्राप्त करता है.
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3. मनुष्य का कर्तव्य – स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग
क्योंकि हमें कुछ करने से पहले यह जानना जरुरी है कि हमारा कर्तव्य क्या है तभी तो हम उस कार्य को अच्छे से कर पाएंगे। और यह कर्तव्य जितना सुलझा हुआ दिखाई पड़ता है उतना है नहीं। क्योंकि कर्तव्य के सम्बन्ध में अलग-अलग देशों अलग-अलग लोगों व जातियों में भिन्न धारणाये हैं। प्रत्येक व्यक्ति को यह जानना आवश्यक है कि – कर्म क्या है? कर्तव्य क्या है?
- जैसे हिन्दू कहता है कि जो वेदों में लिखा है वही उसका धर्म है।
- मुशलमान कहता है जो कुरान में लिखा है वही उसका धर्म है।
- और ईसाई कहता है कि उसका धर्म बाइबिल में लिखा हुआ है।
इस प्रकार से हम देख पा रहे हैं कि अलग-अलग अवस्था परिस्थिति और देश काल के अनुसार कर्तव्य कर्म का निर्धारण होता है इसलिए कर्तव्य की व्याख्या करना भी मुश्किल है। परन्तु हम कर्तव्य कहाँ करना है और कैसे करना है इसका क्या फल या परिणाम मिलेगा इस सब बातों को मात्र विचार कर सकते हैं।
हमारे सामने जब कोई बात आती है तब हमारे अंदर की अलौकिक शिक्षा से प्रेरित भावना उत्पन्न होता है और इसी भावना से हम विचार करते हैं कि इस परिस्थिति में यह कार्य करना ठीक होगा और कभी सोचते हैं कि यह कार्य करना ठीक नहीं होगा।
इससे यह तो समझ में आता हैं कि कर्तव्य सम्बंधित साधारण विचार मनुष्य के मन में आता है, वह अपने आत्मा के आज्ञा के अनुसार कार्य करता है। परन्तु सवाल यह उठता है कि कर्तव्य का निश्चय कैसे होता है?
किसी धर्म में गोमांस को खाते हो तब वह बहुत बड़ा पांप है और किसी धर्म में नहीं खाते हो तब भी आप पाप कर रहे हो। अलग-अलग धर्म की शिक्षा उसे ऐसा सोचने पर मजबूर करती है।
पुराने समय में कुख्यात डाकू किसी मनुष्य को मारकर उसका धन छीन लिया करते थे और इसे वे अपना कर्तव्य समझते थे, जितने ज्यादा व्यक्तियों को वे लुटते और हत्या करते उतने ही ज्यादा वे धर्म का पालन कर रहे थे।
अगर आज के समय में कोई साधारण व्यक्ति किसी व्यक्ति को मार डाले तब वह गलत है उसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया। परन्तु वही व्यक्ति अगर सेना की टोली में हो और युद्ध के समय 20, 25 शत्रु को मार गिराए तब वह अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है।
इसलिए यह प्रमाणित हो जाता है की अपने कृत कार्य से कर्तव्य का निर्धारण नहीं हो सकता। कर्म के अनुसार कर्तव्य नहीं हो सकता बल्कि कर्म में ही कर्तव्य निहित होता है। जिस कर्म के माध्यम से हम ईश्वर की ओर जाते हैं वह सुभकर्म और हमारा कर्तव्य है ठीक इसका उल्टा जिस कर्म से हम नीचे की ओर जाते हैं वह अशुभ कर्म और अकर्तव्य होता है।
अगर एक कर्ता की नजर से देखा जाये तो कुछ कर्म ऐसे हैं जो हमें महान बनाती है और कुछ हमें पतन की ओर ले जाती है। परतु दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता की किन किन परिथतियों में कर्मो का क्या प्रभाव पड़ेगा।
इसलिए सभी व्यक्तियों देश काल का मानना है कि इसे इस प्रकार देख सकते हैं – परोपकार करना ही पुण्य का काम है और दूसरों को दुःख पहुंचाना पाप है। परन्तु एक कर्ता की दृष्टि से यह निर्धारित नहीं कर सकते की कौन सा कर्म हमें ऊपर उठाएगा और कौन सा नीचे लेकर जायेगा।
भगवदगीता में कई जगहों पर जन्म और जीवन के अनुसार धर्म की ओर आकर्षित किया गया है। जन्म और वातावरण से मनुष्य के विभिन्न कर्मो के प्रति मानसिक व धार्मिक विचार बनते हैं। इसलिए हमारा धर्म यह हो जाता है कि जिस समाज में हम उन्नत हुए हैं उसी के आदर्श और कर्मो को ध्यान में रखते हुए – जिससे हम उन्नत हो सके वही काम करें।
परन्तु इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए की सम्प्रदायों का एक आदर्श और कर्म नहीं होते। यहा ठीक से ना समझ सकने के कारण जातियों में परस्पर विरोध भाव बढ़ता है। एक अमेरिका निवासी समझता है कि वह अपने देश की धारणाओं के अनुसार जो कुछ करता है वही उसका कर्तव्य है जो उसका पालन नहीं करेगा जरूर वह असभ्य होगा।
एक भारत निवासी सोचता है कि उसके रीती रिवाज सबसे उचित और श्रेयकर है उन्हें जो नहीं मानता जरूर वह जरूर असभ्य होगा। यह एक स्वाभाविक मूल है जो प्रत्येक आदमी आसानी से कर जाता है। संसार के आधा से ज्यादा दुखों का कारण तो यही है।
विवेकानंद जी कहते हैं – जब मै इस देश में आया था और शिकागो का मेला देख रहा था तब एक आदमी मेरे पीछे आया और उसने बड़े जोर से मेरी पगड़ी खींच ली मैने पलट कर देखा तो वह सभ्य सा भली पोशाक पहने दिखाई दिया।
उसी समूह में एक आदमी ने मुझे धक्का दिया जब मैने उससे इसका कारण पूछा तो वह भी घबरा गया और अंत में किसी तरह क्षमा याचना करते हुए बोला – आपने ऐसे कपडे क्यों पहने हैं ?
उन व्यक्तियों की सवेदनाए उन्ही की पोशाक और भाषा के दायरे में बंद थी। वह व्यक्ति जिसने मुझे ऐसे पोशाक पहनने का कारण पूछा था बेशक वह अच्छा नागरिक था अच्छा व्यक्ति था अच्छा पिता था परन्तु दूसरे व्यक्ति को अपने यहां ऐसा पोशाक पहना देख उसका मन विचलित था।
अजनबी व्यक्ति साधारणतः नए देशों में जाकर बहुत मुर्ख बनाये जाते हैं क्योंकि वे वहां पे अपना समुचित रक्षा करना नहीं जानते जिसके परिणाम स्वरुप वहां से लौटते वक्त वहां के लोगों की अपशिष्टता या दुर्व्यवहार अपने मन पर प्रभाव ले आते हैं कहा जाये तो उस देश के प्रति सोच गलत हो जाता है कि कैसा देश है जिसने मुझे लूट लिया।
शायद इसी कारण से चीनी लोग अमेरिका और इंग्लैंड वालों को विलायती शैतान कह कर पुकारते हैं.
सो हमें इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि दूसरों के कर्तव्य का हम उन्ही के नजरिये से विचार करें, अन्य जातियों व देशवासियों की प्रथाओं को हम अपने हिसाब से ना मापें।
हमें संसार के अनुकूल रहना है ना की संसार को हमारे अनुकूल इसलिए हम देखते हैं कि परिस्थतियों के साथ हमारे कर्तव्य में भी परिवर्तन होता है। किसी समय में जो हमारा कर्तव्य है उसे सोच समझ कर करना यही संसार में हम सबसे अच्छी बात कर सकते हैं।
जन्म के अनुकूल जो हमारा कर्तव्य है उसे हमें करना चाहिए जीवन में मनुष्य का कोई ना कोई स्थान होता ही है उसके अनुरूप कर्तव्य का पालन करना चाहिए। मानव स्वाभाव में एक कठिन बात यह है कि मनुष्य अपनी ओर से स्वस्छ दृष्टि से नहीं देखता वह यह समझ लेता है कि सिंहासन पर बैठकर वह अपने हिसाब से शासन कर सकता है।
उससे पहले व्यक्ति को चाहिए की वह संसार को यह दिखा दे कि छोटे से छोटे काम को अच्छे ठंग से कर सकता है बाद में उसके सामने बड़े काम आएगा।
अगर संसार में हम मन लगाकर काम करना शुरू करते हैं तो पूरा वातावरण और प्रकृति की मारें हमारे ऊपर पड़ती है और हम जल्द ही जान लेते हैं कि हमारा कार्य क्षेत्र कौन सा है। अगर कोई व्यक्ति लायक नहीं है तो वह अधिक देर तक एक पद पे नहीं टिक सकता इससे रोने पछतावा करने से कोई फायदा नहीं है।
जो छोटा काम करता है वह अपने काम के कारण छोटा नहीं है किसी के काम को देख कर बड़ा-छोटा का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए। बल्कि वह इस अंदाज और ढंग से काम कर रहा है इस बात को अंदाजा लगाना चाहिए।
स्त्री व पुरुष में चरित्र ही पहला गुण है पुरुष कितना ही सुमार्ग में चला गया हो वह एक पतिव्रता सुशील पत्नी द्वारा कुमार्ग में ना लाया जा सके ऐसा असंभव है।
यह संसार अभी उतना भी बुरा नहीं है संसार में मुर्ख पतियों और उनकी दुश्चरित्रता के विषय में बहुत कुछ सुना हुआ है। पर मेरा अनुभव मुझे यह बताता है कि दुश्चरित्र और पशुतुल्य स्त्रियां उतनी ही हैं जितना की मनुष्य।
संसार की स्त्रियां अगर उतनी ही सुशील और सचरित्र होती जितना की उन्हें बारम्बार आख्यानों में समझा गया है तब मुझे पूरा विश्वास है की एक भी चरित्रहीन पुरुष नहीं होता। एक सुशील पतिव्रता स्त्री जो पति को छोड़ प्रत्येक अन्य पुरुष को अपने संतान के सामान समझती है और सभी पुरुषों के प्रति माँ के सामान दृस्टि रखती है।
इसी के सामान प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी को छोड़ अन्य सभी स्त्रियों की ओर माता, पुत्री व बहन की भांति देखना चाहिए जो मनुष्य धर्म शिक्षक होना चाहे उसे प्रत्येक स्त्री को अपने माता के सामान देखना और उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करना सोभा देता है.
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अंतिम शब्द
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