बालक और कोणार्क सूर्य मंदिर – Konark sun temple story in hindi
एक ग्यारह वर्षीय किशोर बालक था, वह अपने घर के छत के नीचे बने दहलीज पर बैठा रहता और वहां से गुजरने वाले राहगीरों को देखा करता, जब वह रास्तें से गुजरते हुए अपने उम्र के बच्चों को अपने पिता के साथ देखता, तब उस नन्हे बालक का छोटा सा हृदय पिता के प्यार के लिए तड़प उठता.
जब कहीं बाजार, हाट, मेला जाता तो अपने उम्र के बच्चों को अपने माता-पिता के साथ देखता, जब मेला से वापस आते वक्त बच्चों के हाँथ में गुब्बारें, लट्टू, इत्यादि देखता तब बेचारे का मासूम मन किस कदर तड़प महसूस करता, यह केवल वही बालक समझ सकता है जो अपने पिता से दूर हो चूका हो
वह बालक रोज अपनी माँ से पूछा करता कि – माँ, पिता जी कहाँ है ?
तब माँ उसे कहती – बेटा हम बहुत गरीब हैं ना, इसलिए तुम्हारे पिताजी बहुत सारा पैसा कमाने दूर शहर गए हुए हैं, परन्तु वे बहुत जल्दी लौट आएंगे और फिर देखना तुम्हारे बहुत सारा खिलौना और मिठाइयां लाएंगे.
माँ की इस प्यारी बातों को सुनकर उसका मन बहल जाता पर ऐसा बोल कर स्वयं माँ की आँखों में एक वेदना और उदासी सी छा जाती बस इसी तरह समय बीतता चला गया, बालक रोज अपने पिता के बारें में सवाल करता और माँ कोई ना कोई बहाना बनाकर ऐसे ही उसे बहला फुसला लेती.
बालक जब ज्यादा जिद्द करता तो माँ उसे बहलाने के लिए छैनी-हथौड़ा उसके हाँथ में थमा देती, बालक भी मग्न हो जाता और खेलने लग जाता, खेलते-खेलते बालक छैनी और हथोड़े से पत्थरों को काट-काट कर नयी-नयी आकृति दे देता, इसे देखकर माँ बहुत प्रसन्न होती की आखिर वंश का गुण उसके अंदर विद्यमान है क्योकि उस बालक के पिताजी भी एक शिल्पकार है, माँ की इक्षा भी यही था की उसका बेटा अपने पिताजी की तरह एक अच्छा शिल्पकार बनें.
अब वह बालक बारह वर्ष का हो चूका था, अपने पिता जी के बारें में एक ही बात सुनकर की वो जल्द ही आएंगे, वह थक चूका था, उसे अपने पिता जी के बारे में सम्पूर्ण जानकारी चाहिए थी, फिर एक दिन उसने खाना-पीना भी त्याग दिया की और जिद्द करने लगा की उसे उसके पिताजी के बारे में बताया जाये और उस बालक को अपने पिताजी के पास भी जाना था.
अब माँ भी बेचारी डर गयी, आखिर एक ही तो बेटा है यही उसका सहारा है, अगर उसने खाना-पीना त्याग दिया तो माँ क्या करेगी।
माँ ने कहा – बेटा, तुम्हारे पिताजी तुम्हारा जन्म के समय से ही कलिंग (अब उड़ीसा) के एक नगर कोणार्क गए हैं। वहां पर सूर्य मंदिर का निर्माण हो रहा है, अब तो इस बात को बारह साल बित चुके हैं, तुम्हारे पिताजी अब आते ही होंगे बेटा इसलिए तुम्हें वहां जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
परन्तु बेटे ने जिद पकड़ ली कि उसे तो अपने पिता के पास जाना ही है। माँ उसे समझाते हुए बोलने लगी की देख बेटे, तुम वहां जा कर क्या करोगे, फिर वहां का रास्ता भी बहुत लम्बा और डरावना है जहां जंगलों से होकर जाना पड़ता है और जंगल में अनेक खतरनाक जंगली जानवर हैं, उस रास्ते ना जाने कितने नदी, नाले और पहाड़ है तू नन्हा सा बालक इन सब परेशानियों से निकलकर कैसे जा पायेगा बेटे।
बेटा बोला नहीं माँ, मै जरूर जाऊंगा अगर राह में किसी जंगली जानवर से मुलाकात भी हुआ तो मेरे पास मेरा हथियार छैनी-हथौड़ा है ना, इससे मै उन्हें मार गिराऊंगा और अपना रास्ता चलता बनुंगा। नदी-नाले, पर्वत सभी को पार करके मै जरूर पिताजी के पास पहुँचूँगा और तुम देखना माँ मै उन्हें साथ लेकर ही लौटूंगा। अब तो तुम मेरे जाने की तैयारी करों, देखना तुम बहुत खुस होगी माँ जब मै पिताजी को लेकर लौटूंगा तो।
बालहठ के आगे माँ की एक ना चली उसने अपने बेटे के लिए पोटली तैयार की जिसमे कुछ खाने के लिए रखी और आंसू भरे नेत्रों से अपने बेटे को विदा किया
लांगुला राजा नरसिंहदेव उस समय यहीं पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करा रहे थे। कहा जाता है कि नरसिंहदेव का जन्म उनके माता-पिता द्वारा सूर्य की आराधना करने पर हुआ था। जब नरसिंहदेव राजगद्दी पर बैठे तब उनकी माता ने आदेश दिया की तुम्हारे पिता ने पूरी के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। तुम भगवान सूर्यदेव का मंदिर बनाकर अपनी कीर्ति और यस का ध्वज फहराओ। अपनी माता की आज्ञा से प्रेरित होकर नरसिंहदेव उन दिनों यह निर्माण करा रहे थे, उस समय इस क्षेत्र का नाम आरक था। उस गांव का नाम भी पहले कण-कण था परन्तु धरती के कोने में होने के कारण कोण+आरक से इसका नाम कोणार्क हो गया।
कोणार्क के बारे में पौराणिक कहानियां – पौराणिक कहानियों के अनुसार सूर्यदेव और भगवान शिव ने यहाँ कठिन तपस्या की थी।
इसके अलावा एक मान्यता यह भी है की अर्क सूर्य भगवान का ही एक नाम है इसलिए इस जगह का नाम कोण+अर्क = कोणार्क हो गया।
सूर्य मंदिर के भव्य निर्माण से पहले यहाँ सूर्य की प्रतिमा का छोटा सा देवालय था। कोणार्क में सूर्य मंदिर के निर्माण के लिए जगह-जगह से शिल्पकार बुलाये गए थे, उन्ही बारह सौ शिल्पकारों में एक, उस बालक आर्जव का पिता वसुषेण भी था जो सभी शिल्पकारों का मुखियां था।
इस मंदिर का निर्माण कार्य को चलते-चलते बारह वर्ष बीत चुके थे। पूरा मंदिर बन चूका था, पर सिखर कलश का निर्माणकार्य अभी भी नहीं हो पा रहा था। सभी शिल्पकार मिलजुलकर अथक प्रयाश से सिखर कलश बनाते, परन्तु वह रात भर में ध्वस्त हो जाता। शिल्पकारों को यह बात समझ ही नहीं आ रही थी, उन्हें लगता सभी कार्य सहीं तरीके से तो हो रहा है परन्तु सिखर कलश क्यों नहीं टिक पा रहा।
उस शाम को बालक आर्जव कोणार्क की भूमि पर पंहुचा, कोणार्क की भूमि को प्रणाम कर मनमुग्ध हो विशाल महासागर और उसके किनारे पर यह विराट मंदिर को निहारता रहा।
मंदिर के बाहर सभी शिल्पकार उदासी से अपने सिर झुकाये हुए बैठे थे, उनके चेहरे पे उदासी और भय की रेखाएं थी। आर्जव ने अपने माँ के द्वारा बताये लक्षणों से अपने पिता को पहचान लिया और प्रणाम करते हुए उनसे पूछने लगा।
पूज्यवर, आप सभी ऐसे उदास क्यों बैठे है ? सागर के किनारे सूर्य की लालिमा ये युक्त कितना मधुर मौसम बना हुआ है और आप लोग के चेहरे पे ये उदासी, मुझे समझ नहीं आ रही कृपया करके इस उदासी का कारण मुझे भी बताइये।
बालक की मधुर वाणी सुनकर मुखिया वसुषेण बोले – बेटा अभी तुम एक छोटे से बालक हो, तुम यह जानकार भी क्या करोगे तुम्हे बताने भर से हमारी विपदा तो समाप्त नहीं होगी। परन्तु तुम इतना आग्रह कर रहे हो तो तुम्हे बताता हूँ।
यह जो सामने विराट मंदिर दिखाई दे रहा है, इसे बनाने-सवारने में हम बारह सौ शिल्पकारों का समूह पिछले बारह साल से लगा हुआ है। हमारे अथक परिश्रण के स्वरुप इस मंदिर का शिल्पकला का एक अद्वितीय रूप निखरकर आया है, फिर भी एक कमी रह गयी है जो हमारे लगातार प्रयसों के बाद भी पूरा नहीं हो पा रहा है।
हमलोग मिलकर इस मंदिर का सिखर कलश बनाते हैं परन्तु यह ढह जाता है। कलिंग के अधिपति महाराज नरसिंहदेव ने हमें आज रात का ही समय दिया है, कल सूर्योदय तक अगर सिखर कलश नहीं बना तो हमें फांसी की सजा दे दी जाएगी। हम अपनी घर परिवार से दूर यहां बारह वर्ष से पड़े हैं, सोंचा था मंदिर का कार्य पूरा होते ही अपने-अपने घर चले जायेगे।
मै तो जब घर से निकला था, तब मेरे पुत्र ने जन्म लिया था, अब तो वह तुम्हारी उम्र का हो गया होगा। उसे देखने का कितना उमंग था परन्तु अब लगता है यह उमंग धरी की धरी रह जाएगी। हमारे किस्मत में यही लिखा है, होनी को भला कौन टाल सकता है, बस यही सब बातों से परेशान हैं।
आर्जव बोला – आप मुझे अपना बेटा ही समझिये मुखिया जी।” अपना परिचय देते हुए आर्जव ने कहा- आपका काम मैं कर दूंगा, आप सभी पूजा पाठ कर भोजन करिये मै जाता हूँ सिखरकलश बनाने।
बालक की बातें सुन मुखिया के चेहरे पर हल्की मुस्कराहट ही फैल गयी, वे आर्जव से बोले – तुम भी अपना मन बहला लो बेटा परन्तु जिस काम को हम जैसे निपुण शिल्पकार नहीं कर पाएं उसे तुम कैसे कर पाओगे ? प्रभु की लीला जो एक बालक हमें सांत्वना दे रहा है, कोई बात नहीं तुम कोशिश कर देखो बेटा।
फिर क्या था आर्जव अपनी छैनी और हथौड़ी को पकड़ा फिर मंदिर की सिखर पर चढ़ गया व विश्वकर्मा जी को नमन कर अपने काम में लग गया।
पता नहीं काल के गर्भ में कितनी अनजान पहेलियाँ छुपी है, कोई नहीं जानता, पूर्णिमा की चांदनी में सिखरकलश चमकने लगा। सुबह तह आर्जव ने मंदिर का सिखरकलश बनाकर मंदिर को एक नयी रूप दे दी। सारे शिल्पकार चकित रह गए, मुखिया ने अपने सारे औजार आर्जव के चरणों में रख दिए और गदगद स्वर में कहां
“छोटे विश्वकर्मा, हम तुम्हे प्रणाम करते हैं।
हमारी मौत तो निश्चित है, परन्तु हमें मरते हुए भी खुसी होगी की हमारा अधूरा कार्य तुमने पूरा किया, लोग युगों-युगों तक तुम्हरा नाम याद रखेंगें बेटा।
आर्जव बोला – अब ऐसा क्या रह गया मुखिया जी, जो आप इतनी निराशा की बातें कर रहे है। अब तो आपको अपने घर वालों अपने परिवार से मिलने से कोई नहीं रोक सकता (नन्हें आर्जव ने बड़ी बात कर दी) .
मुखिया बोला हमारी मृत्यु फिर भी निश्चित है पुत्र, जब सुबह राजा को पता चलेगा की जो काम हम सब मिलकर नहीं कर पाए उसे एक बच्चें ने कर दिखाया, तो राजा हमारी नियत पर शक करेगा या कार्यकुशलता पर और हमें दोनों स्थिति में मरना पड़ेगा। पर अब हमें मरने का कोई दुःख नहीं होगा क्योंकि मंदिर का निर्माण सफल हो गया, हमारी साधना पूरी हो गयी।
आर्जव पे तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा उसका दिल बैठ गया, कितनी उम्मीद से माँ को बोल कर आया था की अपने पिताजी को वापस लेकर लौटेगा, माँ घर पर बैठकर कितनी आशा से हमारा इंतज़ार कर रही होगी। मेरे कार्य करने का कोई मतलब ही नहीं होगा जब मेरे सामने ही पिताजी को फांसी दे दी जाएगी और साथ में बारह सौ शिल्पकारों की मौत हो जाएगी।
नहीं मै ऐसा नहीं होने दूंगा (आर्जव ने मन में दृढ प्रतिज्ञा ली) वह मंदिर के सिखरकलश पर चढ़ गया फिर मुखिया को सम्बोधित करते हुए कहा – पिताजी जी प्रणाम इतना कह कर नन्हे बालक आर्जव ने समुद्र में छलांग लगा दी, और देखते ही देखते समुद्र की गहराइयों में समां गया।
कुछ देर बाद जब उसकी पोटली से माँ द्वारा भेजें गए सामान को देखा गया तब पता चला की वह मुखिया वसुषेण का पुत्र है।
सुबह जब राजा नरसिंहदेव ने मंदिर का कलश देखा तो उसके खुसी का ठिकाना ना रहा, जब मंदिर के प्रांगण में पंहुचा तो सभी शिल्पकार खुशिया मना रहे थे, शिवाय मुखिया वसुषेण के। उसका चेहरा उदासी से भरा था, आत्मा चीत्कार कर रही थी हजारों बाण उसके शरीर में चुभे हो जैसे हालत हो गयी थी।
राजा को कुछ सक हुआ और उसने पता लगवाया, जब राजा को सच्चाई पता चला तो उसका अंतर्मन बिलख उठा। राजा सोंच में पड़ गया की एक बच्चा कितना बहादुर है जिसने अपना बलिदान देकर सबको बचा लिया और एक मै हूँ जिसने इन्हे फांसी का भय दिखाया, अगर फांसी का भय ना होता तो आज वह बालक जिन्दा होता।
कोणार्क सूर्य मंदिर का इतिहास
राजा नरसिंहदेव का मन आत्म ग्लानि से भर गया, जिस उत्साह से उसने मंदिर का निर्माण कराया था, उतनी ही कठोरता से मंदिर को बंद कराने का आदेश दे दिया, बड़े-बड़े शिलाओं से मंदिर के दरवाजा को बंद करवा दिया गया और घोषणा कर दी की आज से यहां कोई पूजा-अर्चना नहीं होगा। तभी से वह मंदिर शिलाओं से बंद है।
इस मंदिर की बाहरी दीवारों पर अद्वितीय शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं यहाँ की दीवारों पर सूर्य के तीन प्रतिक चित्र उकेरे गए हैं, एक सुबह का उगता सूर्य, दूसरा मध्य का सूर्य और तीसरा डूबता (ढलता) हुआ सूर्य। सूर्य के ये तीनो रूप इस कदर सजीवता लिए हुए हैं कि इन्हे देख कर आप शिल्पकारों की तारीफ करते नहीं थकेंगें।
कोणार्क सूर्य मंदिर की वास्तुकला अतभुत है, पूरा मंदिर एक विशाल रथ पर खड़ा है, जिसमे सात घोड़े रथ से बंधे हुए है व बारह पहिये हैं प्रत्येक पहिये में 30 सहतीरे है, सूर्य के छाया के वजह से पहिये से समय का ज्ञान घडी के सामान प्राप्त किया जा सकता है।
मंदिर की भग्नावेश अपनी उत्कृष्ट शिल्पविद्या का बेजोड़ उदहारण है। हजारों पर्यटक व सैलानी यहाँ रोज आते है। हालांकि अनेकों वृतियां यहाँ से अब गायब हो चुकी है परन्तु जो बाकि बचीं है वो कम मोहक नहीं है।
इस तरह पूरी से 35 कि.मी. दुरी पर उत्तरपूर्व में स्थित यह कोणार्क अपने आप में इतिहास समेटे हुआ है
इतिहास मानवीय संवेदना का।
इतिहास त्याग और बलिदान का।
एक किशोर बालक आर्जव के दूसरों के हित के लिए मरने का इतिहास।
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