महर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की प्रेम कहानी – विश्वामित्र व मेनका की पुत्री शकुंतला ने एक दिव्य बालक को जन्म दिया जो भरत कहलाया और आगे चलकर भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम आर्यावर्त से भारत हुआ।
महर्षि विश्वामित्र प्राचीन काल के महत्वपूर्ण ऋषियों में से एक थे। महर्षि विश्वामित्र का जन्म एक राजकुल में हुआ था परन्तु उन्होंने बाद में ब्राह्मण के रूप में अपना जीवन यापन स्वीकार किया।
ईश्वर की भक्ति और उन्हें प्रसन्न करने के लिए विश्वामित्र अपना घर-बार त्यागकर वन में एक तपस्वी के रूप में अपना जीवन व्यतीति करने लगे। वर्षों तक उन्होंने अपनी कठिन ध्यान व तपस्या के फलस्वरूप देवताओं के मन में आशंका उत्पन्न कर दी।
देवतागण अपने हित के उदेश्य से महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए अनेक प्रयास करने लगे। जब देवतागण अनेकों प्रयाश के बाद भी अपनी कोसिस में असफल हो गए तब उन्हें अद्वितीय सुन्दरी अप्सरा मेनका का ख्याल आया।
इस कुटिल दुर्विचार के साथ मेनका विश्वामित्र की कुटिया के समक्ष प्रकट हुई और अपने सौन्दर्य के माध्यम से महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने की प्रयत्न करने लगी। यकायक विश्वामित्र निसंदेह अप्रभावित रहे अंततः मनुष्य रूप में उस कन्या के सौन्दर्य को निहार कर विचलित हुए।
इस तरह मेनका ऋषि विश्वामित्र की ध्यान भंग करने में सफल हुई, और विश्वामित्र मेनका की ओर पूर्ण रूप से उन्मुख हो गए। जिसके अंतर्गत मेनका गर्भवती हुई, विश्वामित्र को जब पता चला की यह ध्यान भंग करने के लिए सडयंत्र था वे अत्यंत क्रोधित हुए, परन्तु बहुत देर हो चुकी थी। बाद में मेनका ने एक चुलबुली पुत्री को जन्म दिया, जो सकुंतला के नाम से जानी गई।
अपना कार्य पूरा होने के पश्चात मेनका देवलोक लौट गयी परन्तु अपनी पुत्री को महर्षि विश्वामित्र के पास छोड़ गयी। विश्वामित्र ने भी उस बालिका का जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की और पुनः अपने ध्यान तपस्या के लिए चले गए।
बालिका का पालन पोषण आश्रम में होने लगा। शकुंतला आश्रम में रह कर हिरण व खरगोश को अपना मित्र बनाकर पलने-बढ़ने लगी, धीरे-धीरे शकुंतला का विकास होता गया, और बड़ी होकर वह एक अपूर्व सुंदरी के रूप में नजर आयी।
एक बार संयोगवश राजा दुष्यंत शिकार के लिए जंगल में आये, और एक जंगली सूअर का पीछा करते-करते वे शकुंतला के कुटीया तक आ गए। फिर राजा की नजर एक बहुत ही सुन्दर हिरण पर पड़ी, राजा ने तुरंत ही तीर निकाली और उस हिरण को अपना निशाना बना दिया।
हिरण को तीर लगी और वह कुटिया के पास क्रदन करता हुआ जमीन पर गिर गया, जब शकुंतला ने हिरण की आवाज सुनी तो दौड़ कर उसके पास आयी, और अपने प्रिय पशु को तड़पते देख उसके शरीर से तीर निकाली और हर संभव उपचार करने लगी। इस प्रकार अपने प्रिय पशु पर शकुंतला का प्रेम देख कर राजा दुष्यंत को आत्मग्लानि हुआ, और उसने शकुंतला से क्षमा याचना मांगी।
सकुंतला ने राजा दुष्यंत को क्षमा तो कर दिया परन्तु उसके सामने एक शर्त रखी की वह आश्रम में ही रह कर उस घायल हिरण की देख रेख करे और उसे स्वस्थ करे। राजा दुष्यंत ने यह शर्त सहर्ष स्वीकार कर लिया।
आश्रम के निर्मल सांत और सुरम्य वातावरण में रह कर दुष्यंत का मन शकुंतला के प्रेम में आशक्त हो गया। अंततः दुष्यंत ने शकुंतला के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। और फिर वरिष्ठ जनों की सहमति से शकुंतला और दुष्यंत का विवाह संपन्न हुआ, और वे विवाह के बंधन में बंध गए। दोनों की जिंदगी हंसी-खुसी चल रही थी।
फिर इसके कुछ समय बाद दुष्यंत को यह सुचना मिली की राज्य में अव्यवस्था की स्थति पैदा हो गयी है। और उनकी उपस्थिति बहुत ही जरुरी है। अतः विवश होकर दुष्यंत को अपने राज्य वापस लौटना पड़ा, वापस लौटते समय उसने शकुंतला को वचन दिया की वह जल्द ही वापस आएगा, और शकुंतला को अपने साथ ले जायेगा।
विदा लेने से पूर्व दुष्यंत ने स्मृति (याद) की निसानी के रूप में अपनी अंगूठी शकुंतला को भेंट की, कि तब तक वह अपने पति की याद में उस अंगूठी को निहारे।
शकुंतला घंटों बैठकर उस अंगूठी को निहारती रहती और अपने पति व भविष्य को याद करती रहती। एक दिन एक सिद्ध पुरुष का आगमन हुआ जो क्रोधी स्वाभाव के थे, उस समय शकुंतला आश्रम की सीढ़यों में बैठी हुई, अंगूठी को देखते हुए ख्यालों में खोयी हुई थी। वह योगी थोड़ी देर तक ऐसे ही खड़ा रहा, परन्तु अपनी ही धुन में खोयी हुई शकुंतला को इसका आभास नहीं हुआ।
योगी क्रोध दे तिलमिला उठे और शकुंतला को श्राप दे दिया की दरवाजे पे एक योगी आया हुआ है इसका भी तुम्हे आभास नहीं है – हे कन्या जिसकी याद में तुम इतना खोयी हुई हो वह तुम्हे भूल जायेगा। ऐसा श्राप देकर वह योगी वहां से जाने लगा।
सकुंतला फिर भी इस बात से अनजान थी सौभाग्य से उसकी एक सहेली ने यह बात सुन ली और उस योगी से क्षमा याचना मांगी और सकुंतला की पूरी वास्तविकता सुना दी। फिर योगी ने चिंतन कर कहा की श्राप का अभिशाप होते हुए भी अगर सकुंतला के प्रियतम (दुष्यंत) को स्मृति अंगूठी दिखाई जाए तो वह सकुंतला को पहचान लेगा।
सकुंतला का समय अपने प्रिय दुष्यंत को याद करते हुए और सुख के सपने देखते हुए बीतने लगा। उन दिनों शकुंतला को यह जानकर बहुत ही आह्लाद हुआ की वह गर्भवती है। दिन बीते, महीने बीते व साल बीती परन्तु सकुंतला को केवल निराशा ही हाँथ लगी और दुष्यंत का किया हुआ वादा अपूर्ण ही रहा। अंततः शकुंतला की धैर्य की सीमा समाप्त हो गयी, उसने आगे प्रतीक्षा ना करके राजा दुष्यंत के पास जाना ही उचित समझा।
सकुन्तला अपने गुरु, साथी, और अपने पालक पिता को साथ लेकर राजा दुष्यंत के महल की ओर प्रस्थान करने लगीं। महल के रास्ते में एक नदी पड़ता था, सो नदी को पार करने के लिए एक नाव किराये पर लिया गया। नाव से नदी को पार करते समय नाव के हिलने से शकुंतला के हाँथ से वह अंगूठी छूट कर गिर गयी, जिसके सहारे सकुंतला राजा दुष्यंत के पास जा रही थी।
महल पहुंच कर जब शकुंतला ने राजा दुष्यंत से बात की, परन्तु श्राप के प्रभाव से दुष्यंत ने सकुन्तला को पहचानने से इंकार कर दिया, दुष्यंत के ऐसे बाते सुनकर और पहचानने से इंकार करने पर शकुंतला स्तब्ध रह गयी और सिहर उठी। राजा दुष्यंत के महल से अपमानित होकर निकाले जाने से शकुंतला ने उस स्थान का परित्याग कर दिया। लज्जावस उसने एक निर्जन स्थान पर अकेले रहने का निश्चय किया, जहां शकुंतला ने एक प्यारे बालक को जन्म दिया जिसका नाम भरत था।
बालक अपने माता के साथ रहते हुए पलने बढ़ने लगा, उस निर्जन स्थान पर शेर हांथी, चीतें भरत के मित्र थे, उस बहादुर बालक के लिए हिंशक पसु शेर आदि का दांत गिनना एक खेल था।
एक दिन राजा दुष्यंत के महल में एक मछुआरा पंहुचा, जिसके पास वह अंगूठी थी जी दुष्यंत ने निशानी के तौर पे शकुंतला को दी थी। मछुवारे को वह अंगूठी एक बड़े से मछली के पेट से मिली थी। चुकी इस अंगूठी में राजकीय घराने की मुहर थी इसलिए मछुआरा उसे सीधे राजा के पास ले आया। उस अंगूठी को देखते ही राजा दुष्यंत को शकुंतला की स्मृति हुई, वह तुरंत शकुंतला को लेने आश्रम की और प्रस्थान किया।
जब राजा दुष्यंत आश्रम पंहुचा तो यह जानकर उसे घोर निराशा हुई की शकुंतला आश्रम को छोड़ चुकी थी।
फिर कुछ सालों बाद जब राजा दुष्यंत शिकार के लिए जंगल गए तब यह दृश्य देख कर आश्चर्य चकित रह गए की एक बालक शेर का मुँह खोल कर उसका दांत गिन रहा है। राजा दुष्यंत ने जानना चाहा की इतना बहादुर बालक यह किसका पुत्र है। और घोड़े से निचे उतर कर उस बालक से उसका नाम और उसके बारे में पूछा।
बालक ने कहा की वह इस साम्राज्य के शासक राजा दुष्यंत का पुत्र है। राजा दुष्यंत आश्चर्य चकित हुए, ठीक उसी समय शकुंतला अपने बेटे को पुकारती हुई कुटिया से बाहर निकली, राजा दुष्यंत का नजर शकुंतला पर पड़ी, राजा की खुसी की कोई सीमा ही ना रही उसके आँखों से अश्रु बहने लगे, अपने परिवार को वापस पाकर राजा दुष्यंत ने उन्हें गले से लगा लिया।
वह बहादुर बालक ही बड़ा होने पर शक्ति, साहस व करुणा का प्रतिक बना और उसके नाम से ही उसके राज्य का नाम भारतवर्ष पड़ा।
इस कहानी का यह स्पस्ट करता है की प्राचीन काल में प्रेम का असीम साम्राज्य था। एक प्रकार से देखा जाये तो ऋषि विश्वामित्र ने भी श्री कृष्ण की तरह प्रेम का नया इतिहास रचा। यह महान ऋषि और एक अद्वितीय सुन्दरी उर्वशी की प्रेम कथा ही है, जिसने आगे चलकर भारत को पहला चक्रवर्ती सम्राट प्रदान किया।
अंतिम शब्द
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